कहानी संग्रह >> बीच बहस में बीच बहस मेंनिर्मल वर्मा
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Beech Bahas Mein a hindi book by Nirmal Verma - बीच बहस में - निर्मल वर्मा
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
निर्मल वर्मा बार-बार अपनी रचना-संवेदना के परिचित दायरों की ओर वापस लौटते हैं। हर बार चोट की एक नयी तीव्रता के साथ लौटते हैं, और जितना ही लौटते हैं, उतना ही वह कुछ जो परिचित है और भी परिचित, आत्मीय और गहरा होता जाता है। अनुभव के ऊपर की फालतू परतें छिपती जाती हैं, और रचना अपनी मूल संवेदना के निकट अधिक पारदर्शी होती जाती है। निर्मल वर्मा की रचना की परिदर्शी चमड़ी के नीचे आप उस अनुभव को धड़कते सुन सकते हैं। छू सकते हैं। यह अनुभव बड़ा निरीह और निष्कवच है। आपको लगता है कि यह अपनी कला की पतली झिल्ली के बाहर की बरसती आग और बजते शोर की जरब नहीं सह पायेगा।
-मलयज
अपने देश वापसी
एक विदेशी का सुख मेरा सुख नहीं है। वह पहली बार सबको देखता है–औरतें, धूप, छतों पर डोलती हुई, हवा में सूखती हुई साड़ियाँ। वह हर जगह ठहरता है–नए परिचय के आह्लाद में। ठहरता मैं भी हूँ, पुरानी पहचान की धूल में आँखें झिपझिपाता हुआ–एक किरकिरी-सी पहचान जो न घुलती है, न बाहर आती है–चोखेर बाली ! न मुझमें ‘नेटिव’ का सन्तोष है, जो आस-पास की दरिद्रता–अन्तहीन सूखी वीरानी–के किनारे-किनारे अपना दामन बचाकर चलता है। न मुझमें उन विदेशी टूरिस्टों का ‘भारत-प्रेम’ है, जो सबको समेट लेता है, और फिर भी अछूता रहता है।
मैं पहचाना-सा प्रवासी हूँ, जो लौट आया है; एक अजनबी-सा भारतीय, जो हर जगह सन्दिग्ध है–सुख अपने सामने सबसे अधिक।
जब घर लौटता हूँ, तो मेजबान पूछते हैं, संगम देख आए, इतनी तितीरी धूप में, इतनी गर्म, हमेशा उड़नेवाली धूल में ? बहुत बरसों बाद ? मुझे हैरानी होती है कि जब से मैं लौटा हूँ, बीच के वर्ष जो मैंने बाहर गुजारे थे, मुझे छुई-मुई
झिलमिले से लगते हैं–जैसे जाने से पहले जो सुई रिकॉर्ड पर ठिठक गई थी, अब दोबारा उसी जगह से चालू हो गई है। वही संगीत अंश है, वही रिकॉर्ड–मैं जहाँ उसे छोड़ गया था, वहाँ मेरी उम्र रुक गई थी। विदेश में गुजरा समय जैसे प्लेटफॉर्म पर गुजारी रात हो, उस बाकी रिकॉर्ड के हिस्से को सुनने की प्रतीक्षा में–जहाँ धूल है, गर्मियों की रातें हैं।
आपको कैसा लगता है, इतने वर्षो बाद ? जब कोई यह प्रश्न पूछता है, तो मुझे सहसा संगम की वह तितीरी दोपहर याद हो आती है। मैं सब कुछ भूल जाता हूँ–सिर्फ़ याद आते हैं, हाथ-भर लंबे साधु, उन पर पंखा झलते हुए पगले-पगले से चेले और सामने एक फटी-पुरानी दरी पर धूल में सने बासी बताशे और नए पैसे।
‘‘बाबू, देखते क्या हो ? साक्षात् शिव के अवतार हैं। रात-भर नहीं सोते।’’
शिव के अवतार टुकुर-टुकुर मेरी ओर देखते हैं। मैं उनकी ओर। पीछे गंगा का सूखा पाट था। कुटियों की लंबी कतार, यहूदियों के ‘घैटो’ की तरह अपने में सिमटी हुई, जिन पर रंग-बिरंगी झंड़ियाँ फहराती हैं। सूखी गंगा और शिव के अवतार के बीच धूल उड़ती है–खास हिन्दुस्तानी पर्दा डालती धूल और साँय-साँय करती हवा। वे रात-भर सोते, यह ध्यान आते ही मुझे अपनी रातें याद आती हैं–घर की छत पर, दूसरों की छतों की फुसफुसाहट से सटी हुई, पसीने से तर- बतर।
जब मैं जाने लगा, ‘शिवजी’ के चेले ने शिकायत-भरी नजरों से मेरी ओर देखा। चुनौती-सी देते हुए बोला, ‘‘आप नहीं समझेंगे, बाबू। विलायत के लोग इनकी महिमा गाते हैं।’’ विलायत का नाम सुनकर सहसा मेरे पाँव ठिठक गए। मुझे लगा, शायद वह मुझे कोई सर्टिफिकेट दिखाएगा। यह आश्चर्य की बात न होती। जब हमारे हिन्दी साहित्यकार अमरीकी विश्वविद्यालयों में गांधीजी की महिमा गाते नहीं थकते, तो कोई साधु अपनी महिमा के सबूत में विदेशी प्रशस्तिपत्र दिखाए, तो स्वाभाविक ही होगा।
मैंने एक बार उस ठूँठ-देह को देखा, जो शिव के अवतार थे। एक बार इच्छा हुई की उन्हीं के पास बैठ जाऊँ। धीरे से कहूँ कि जैसे वह हैं, धूल में सने हुए, गंगा के किनारे आँखें मूँदे हुए, उसी में उनका गौरव है, ‘प्रशस्तियों’ की उन्हें कोई जरूरत नहीं, चाहे वे भारतीय बाबुओं की हों या, ‘भारत-भक्त’ अमरीकी महिलाओं की। किन्तु मुझमें इतना साहस नहीं कि कुछ कह सकूँ, कम-से-कम उस व्यक्ति के सामने नहीं, जो ‘रात-भर सो नहीं पाते।’
दोनों नदियों से जुड़े हुए पानी पर मेरी देह आधी-आधी बँट गई है–आधी थकान यमुना और आधी गंगा अपने साथ बहा ले जाती है। पानी काफी गँदला है। कुछ दयनीय किस्म के फूल उस पर तिरते हैं। अपने देश में पानी में विदेशी दिनों की थकान धीरे-धीरे झरती है। हजारों वर्ष पहले शायद आर्यों ने इसी पानी में अपनी धूल और थकान को धोया होगा। और तब मुझे वे शब्द याद आते हैं, जो आइसलैंड में लैक्सनेस ने कहे थे, ‘‘हिन्दुस्तानी अद्भुत लोग हैं। गंगा के पानी में कीटाणु पल सकते हैं, उन्हें विश्वास नहीं होता।’’
सच पूछो, तो विश्वास मुझे भी नहीं होता। जो चीज अदृश्य है, उसमें विश्वास कैसा ? हम ‘दैहिक’ लोग हैं। दुनिया में शायद ही कोई जाति हो, जिसका देह के प्रति इतना मांसल, इतना सजीव लगाव हो। नंगी आँखों से देखने का सुख, नंगे हाथों से खाने का संतोष, नंगे निरोधहीन अंगों से प्यार करने की तृप्ति, थिएटर-सिनेमा में सोने का आनन्द–क्या कभी कोई हमें इन सुखों से वंचित कर सकता है ? देह के प्रति इतनी गहरी, इतनी अटूट आत्मीयता के कारण ही हमारे पुरखों ने दूसरे जन्मों की कल्पना की होगी। मृत्यु के बाद देह बिल्कुल नष्ट हो जाती है, आदमी हमेशा के लिए खत्म हो जाता है, यह विचार उन्हें भयंकर, नितान्त असहनीय होगा।
इस देश में देह का यह खुलापन हर जगह है। एक बन्द, शरमाते समाज में यह कुंठाहीन प्रदर्शन दूलरों का विरोधाभास जान पड़े, हम उसके आदी हो चुके हैं। हम एक मकान से दूसरे मकान में झाँक सकते हैं। कोई ऐसा कोमल, गोपनीय रहस्य नहीं, जो पड़ोसी की लुब्ध, पपड़ाई आँखों से छिपा रहा हो।
यहाँ सब कुछ देखा जा सकता है, सुबह के नहाने से लेकर रात के सोने तक। यद्यपि अपनी ‘मर्यादा’ में हर परिवार अपने-अपने में बन्द है, उसका दैनिक कार्यकलाप खुले पन्ने-सा खुला है। जब भाई-बहन के कमरे में या पति-पत्नी के कमरे में जाती है, तो दरवाजा खटखटाने की जरूरत नहीं, हिन्दी में ‘प्राइवेट’ के लिए कोई शब्द नहीं, क्योंकि भारतीय परिवारों में कभी उसकी आवश्यकता नहीं जान पड़ी। यह चीज लियोनोल्ड वुल्फ ने सबसे पहले नोट की थी, जब वे लन्दन के एक अपार्टमेंट में जवाहरलाल नेहरू से मिलने आए थे।
उन्हें यह चीज काफी अजीब लगी थी कि नेहरूजी दरवाजा खोलकर बैठे हैं। लोग आते हैं, बात करते हैं और चले जाते हैं–यूरोप से बिल्कुल विपरीत, जहाँ समाज की मर्यादाएँ चाहे कितनी खुली और मुक्त क्यों न हों, अपने घर में हर व्यक्ति अपने सगे-संबंधियों से भी अपनी देह-आत्मा छिपाकर चलता है।
मुझे यूरोपीय परिवारों का यह ‘पारस्परिक छिपाव’ हमेशा कुछ-कुछ हास्यास्पद लगता रहा है। हालाँकि यह छिपाव एक गहरी आत्मीयता से जुड़ा है, जो नंगी और खुली न होकर भी एक मकान को घर बनाती है, हर घर के आस-पास स्मृतियों को इकट्ठा करती है। इन्हीं अंधेरी स्मृतियों के आधार पर यूरोप में उपन्यास का जन्म हुआ था।
हमारे देश के गद्य में यदि उपन्यास की कोई आभा नहीं (महज चार सौ पन्नों का गद्य ‘उपन्यास’ नहीं बनता) तो शायद इसका एक कारण यह है कि हमारी जलवायु में ‘प्राइवेसी’ का कोई महत्त्व नहीं, अँधेरे व्यक्तिगत कोनों का कोई रहस्य नहीं। कोई ऐसे स्मृतियों के घरे नहीं, जो पुश्त-दर-पुश्त घरों में घोंसला बनाते हैं।, जिनमें ‘जीने-मरने’ को समेटा जा सके। शताब्दियों की तितीरी धूप में ढहते खँडहरों के बीच महाभारत की रचना हो सकती है, ऐना कैरेनिना या बुडनब्रुक्स की नहीं।
मुझे वर्षों पुरानी एक दोपहर याद आती है। नार्वे में एक मध्यकालीन शहर है–वर्गेन। मुझे हल्का-सा आश्चर्य हुआ, जब हमारे गाइड ने बताया कि शहर का सबसे बड़ा आकर्षण वे मकान हैं, जहाँ सौ-दो-सौ साल पहले शहर के धनी व्यापारी रहते थे। उन घरों को संग्रहालय की अमूल्य चीजों की तरह संरक्षित रखा गया है। पुराना फर्नीचर, परिवार की तस्वीरें, पियानो–सब चीजें हू-ब-हू वैसी ही हैं, जैसी कभी थीं। सिर्फ़ घर के प्राणी नहीं हैं। उनके लंबे कमरों में मुझे बार-बार लगता रहा, मानो इब्सन के अभिशप्त पात्रों की नियति भी इन अँधेरे कमरों की भूल-भुलैया में भटकती होगी।
मुझे यह भी विचित्र-सा भ्रम होता रहा (जिसे शायद साहित्य के गंभीर आलोचक हँसी में टाल दें,) कि बाहर की बर्फ, अकेले कमरों की निस्तब्धता और बचपन से मृत्यु तक एक ‘स्पेस’ में बँधा बोध–ऐसी तस्वीरें हैं, जिन्हें साहित्य एक ‘मैजिक लैंटर्न’ की तरह दीवार पर खींचता है। उसे खो देने का मतलब है, अपनी स्मृति से वंचित हो जाना और एक ऐसे ‘मरुस्थल’ में खो जाना, जिसमें वर्जीनिया वुल्फ के स्वप्न ‘ए रूम ऑफ वंज़ ओन’ के लिए कोई गुंजाइश नहीं।
लम्बे अरसे के बाद अपने शहरों में घूमते हुए मुझे बराबर इस ‘मरुस्थल’ का अहसास होता रहा है। क्या कोई शब्द हैं, जो इस पीली, दम-घोंटती दरिद्रता को पकड़ सकते हैं, जो हर नगर पर धूल की मोटी परत-सी छाई रहती है ? लगता है, जैसे हर हिन्दुस्तानी शहर एक मन्द, निन्यानवे डिग्री के बुखार में तप रहा है। तपते, धूप में उबलते शहरों पर बुखार की नींद में दुःस्वप्नों-सी चीलें मँडराती हैं। छतों के ऊपर हर शहर अपनी सुर्ख, ज्वरग्रस्त आँखों से उन्हें ताकता है, और वे बराबर सुन्न, अवसन्न आकाश में चक्कर काटती हैं–न जाने किसकी प्रतीक्षा करती हुई ?
उनके नीचे चीखती, चिंघाड़ती, रिरियाती खास ‘शहरी’ आवाजें, जो दिल्ली, लखनऊ, इलाहाबाद हर जगह एक जैसी ही जान पड़ती हैं–एक अन्तहीन ऊब और विषाद के सूखे खुरंग के नीचे अपने अदृश्य फोड़ों को खुजलाती हुई। मैं बरसों पहले इनसे डरता आया था। अब लौटने पर देखता हूँ, मैं चाहे ऊपर से कितना बदल गया हूँ, वह डर साँप की तरह इन आवोजों पर कुंडली मारकर ज्यों-का-त्यों तैनात है।
क्या तुम इन आवाजों को पकड़ सकते हो, बाँध सकते हो–उसी तरह जैसे कभी जॉयस ने डबलिन की बाजारू, अनर्गल, बहकती आवाजों को एक हाँफते, हड़बड़ाते ‘मोनोलॉग’ में पिरोया था। यहाँ यह संभव नहीं, क्योंकि हमारे शहर महज पक्के मकानों और बँगलों के ‘समूह मात्र’ हैं–स्मृतियों की अटूट धारा उनके बीच कब की सूख चुकी है। वे गाँवों की सीमा पर आधुनिक तड़क-भड़क के इश्तहार-से दिखाई देते हैं। सस्ते और कुरुचिपूर्ण।
उन्होंने पश्चिम की देखा-देखी समृद्धि के सब साधन जरूर ओढ़ लिए हैं–शायद ही किसी देश का कोई वर्ग अपनी ‘समृद्धि’ में इतना ओछा हो, जितना भारत का उच्च वर्ग। किन्तु भीतर की दरिद्रता रह-रहकर ऊपरी लीपा-पोती के बाहर बह जाती है। ला कार्बूजिए को बुलाकर चंडीगढ़ बनाया जा सकता है, विदेशी टेप-रिकॉर्डर और फ्रिज में आत्मा को सुना जा सकता है, ठंडा किया जा सकता है, किन्तु उस गरिमा और गौरव को ‘इम्पोर्ट’ नहीं किया जा सकता जिससे ‘मकान’ घर बनते हैं,
घरों के सम्मिलित संस्कार नगर, जिसके आस-पास स्मृतियाँ जुड़ती हैं, अतीत से जुड़ी होने के बावजूद वर्तमान की धमनियों में स्पन्दित होती हुई–जिसके अभाव में हर चंडीगढ़ आधुनिक खँडहर है, हर पुराना खँडहर मिट्टी का महिमाहीन ढूह।
गरीबी और दरिद्रता में गहरा अन्तर है। भारत लौटने पर जो चीज सबसे तीखे ढंग से आँखों में चुभती है, वह गरीबी नहीं (गरीबी पश्चिम में भी है), बल्कि सुसंकृत वर्ग की दरिद्रता। एक अजीब छिछोरापन, जिसका गरीबी के आत्मसम्मान से दूर का भी रिश्ता नहीं।
शायद यह एक कारण है कि भारतीय सिनेमाघरों में फिल्म शुरू होने से पहले ही विज्ञापनों की जो ‘कॉमर्शियल’ फिल्में दिखाई जाती हैं, उन्हें देखकर अँधेरे हॉल में भी शर्म से मेरा मुँह लाल हो जाता है। स्वस्थ, चिकने-चुपड़े बच्चों को मुस्कुराती हुई माँएँ जिस अदा से कॉर्नफ्लेक्स देती हैं, वह न जाने क्यों मुझे असह्य जान पड़ता है। मुझे तीनों ही ‘चीजें’ अश्लील जान पड़ती है–बच्चे, माँएँ, कॉर्नफ्लेक्स। यूरोप में मुझे अनेक ‘ब्लू फिल्में’ देखने का मौका मिला है, किन्तु शायद ही अश्लीलता का इतना नंगा बोध पहले कभी हुआ हो। न जाने क्यों इन फिल्मों को देखने के बाद मैं तगड़े, ‘तेजवान’ बच्चों को बर्दाश्त नहीं कर सकता। उनकी माँओं को तो बिल्कुल नहीं।
शुरू-शुरू में एकदम लौटने के बाद मुझे अपनी यह खीज अस्वाभाविक, कुछ-कुछ ‘एब्नॉर्मल’ जान पड़ी थी। अब मैं धुँधले ढंग से इसका कारण समझने लगा हूँ। सड़क और सिनेमाघर की दुनियाओं के बीच जो अन्तराल हमारे देश में है, वह अन्यत्र कहीं नहीं। स्कूल से लौटते हुए भूखे-प्यासे बच्चे घंटों बसों की प्रतीक्षा में खड़े रहते हैं।
चिलचिलाती धूप में उनके सूखे बदहवास चेहरे एक तरफ, सिनेमा की फिल्मों में कॉर्नफ्लेक्स खाते चिकने चमचमाते चेहरे दूसरी तरफ। इन दोनों के बीच तालमेल बिठाना मुझे असंभव लगता रहा है। कोई चीज अपने में ‘अश्लील’ नहीं होती, एक खाश परिवेश में अवश्य अशलील हो जाती है। चेकोस्लोवाकिया के बाद किसी रूसी नेता के मुँह से क्रान्ति की बात उतनी ही अश्लील जान पड़ती है, जितना एक ऐसे भारतीय मन्त्री के मुँह से सामाजवाद की प्रशंसा, जो इनकम-टैक्स देना भूल गए हों।
यह अन्तराल हर देश में है, किन्तु हमारे यहाँ वह एक सुर्रियलिस्ट स्वप्न की अद्भुत फैंटेली-सा दिखाई देता है। शायद यही कारण है, जब से मैं लौटा हूँ, सुबह का अखबार छूते हुए घबराता हूँ। जो कुछ ‘ऊपर’ हो रहा है, उसका आस-पास की दैनिक दुनिया से कोई संबंध नहीं। यह एक विचित्र मायावी दुनिया है;
दफ्तर के कमरों के आगे बैठे ध्यानावस्थित धूनी रमाए चपरासी, काम छोड़कर दोपहर का ‘शो’ देखनेवाले क्लर्क, नीरो को मात देते हुए व्यंग्य-हास्य कविताएँ लिखनेवाले साहित्यकार, आस-पास के बाजारूपन से निरासक्त, किन्तु साहित्य में बढ़ती हुई अश्लीलता से उत्तेजित होनेवाले बुद्धिजीवी–ये सब स्वस्थ, शिक्षित आधुनिक लोग हैं। हमें इन पर गर्व है–होना भी चाहिए। कौन आधुनिक माँ कॉर्नफ्लेक्स खाते हुए अपने सजीले बच्चे पर गर्व न करेगी ?
हम सबके अपने-अपने चंडीगढ़ हैं। दीवारों के भीतर ला कार्बूजिए, बाहर दीवारों पर पान की पीक के मौजेक। आधुनिकता और भारतीयता का यह अद्भुत समन्वय और कहाँ मिलेगा ?
हमारे भीतरी-बाहरी जीवन का शायद ही कोई हिस्सा हो, जिस पर इसकी छाया नहीं पड़ती।
लेकिन यहाँ मैं शायद गलत हूँ। हमारे कुछ हिस्से हमेशा अछूते, कुँवारी घास-से कुँवारे बचे रहते हैं। चाहे हम आधी जिन्दगी विदेश में गुजार दें, वापस आने पर उनकी रोशनियाँ पहले की तरह हवा में सिगनल देती हुई तुम्हें अपने पास बुलाती हैं। किसी भी शाम अकेली छत पर बियर पीते हुए, या बिना बियर के भी तुन इन्हें देख सकते हो। रात होते ही हर हिन्दुस्तानी शहर का बुखार उतरने लगता है। धूल का अम्बार अपने पीले पंख समेटकर आकाश से उतर आता है और तुम छत के ऊपर–शहर की छतों के ऊपर–साफ चमकीले तारों की दूर-दूर फैली झालर देख सकते हो,
जिन्हें तुमने पेरिस या प्राग या लन्दन के आकाश में कभी नहीं देखा। दिन की तीखी आवाजों से कोने झर जाते हैं। हर शाम तुम नीचे गली के नुक्कड़ पर, लैम्प-पोस्ट के दायरों में लड़कियों की हँसी सुन सकते हो, जिन्हें सुनकर कुछ और शामें याद हो आती हैं, कुछ दूसरे शहरों के होटलों के कमरे, कुछ और चेहरे।
यह अजीब है कि हर गर्म देश की लड़कियाँ, चाहे वे इटली, स्पेन या अपने देश की हों, शाम के झुटपुटे में एक तरह से ही खुलकर, खिलखिलाते हुए हँसती हैं। हमारे यहाँ यूरोप के शहरों के समय में घिरे, हास्यमय मकाम न भी हों, गलियों और चौराहों की एक स्वतंत्र, स्वयंचालित धारा है, जो हर रात लोगों को बाहर खींच ले आती है।
बहुत देर गए जब गलियाँ सूनी हो जाती हैं, जब हिन्दुस्तानी शहर रोशनियों के बीच एक पुरानी समृति–सा अपनी बोझिल साँसों के सिरहाने ही ऊँघने लगता है। कीर्तन के गमगीन, गुनगुने स्वर एक छत से दूसरी छत पर तिरते जाते हैं। जुलाई की रातों में अचानक बारिश आने पर चारपाइयाँ उतारने की समवेत आवाजें, टूँटी से बहते पानी की टप-टप और तब सहसा ध्यान आता है कि ‘रोज’ की तरह कोई गृहिणी ग्यारह का गजर सुन रही होगी।
गलियों में धूल से सने बच्चे को सोते देखकर सहसा विज्ञापन के चिकने, आत्मतुष्ट चेहरे नहीं, महादेवी के उद्भ्रान्त ‘चलचित्र’ आँखों के सामने घूम जाते हैं। किसी सूने चबूतरे को देखकर याद आता है कि बरसों पहले यहाँ फटी-पुरानी दरी बिछाकर गुल की बन्नो बैठी होंगी।
हमें अपने उपन्यास चाहे कितने प्राणहीन क्यों न लगते हों, हमारी हिन्दी कहानियाँ इन्हीं सीलन-भरी, एक-दूसरी से सटी छतों, गलियों के चौराहा, भुतहा दरवाजों के पीछे छिपी प्रतीक्षारत आखों, अँधेरे में अज्ञात खिलखिलाती हँसी से बाहर आई हैं। वे हमेशा अमर हैं, हमारे साथ हैं।
लेकिन कुछ है, जो हमेशा के लिए बह जाता है। अपनी छत के नीचे लैम्प-पोस्ट इर्द-गिर्द लड़कियों को देखकर मैं सोचता हूँ–वे लड़कियाँ कहाँ हैं, जिन्हें मैंने पाँच साल पहले देखा था। सचमुच, वे कहा हैं ?
मैं पहचाना-सा प्रवासी हूँ, जो लौट आया है; एक अजनबी-सा भारतीय, जो हर जगह सन्दिग्ध है–सुख अपने सामने सबसे अधिक।
जब घर लौटता हूँ, तो मेजबान पूछते हैं, संगम देख आए, इतनी तितीरी धूप में, इतनी गर्म, हमेशा उड़नेवाली धूल में ? बहुत बरसों बाद ? मुझे हैरानी होती है कि जब से मैं लौटा हूँ, बीच के वर्ष जो मैंने बाहर गुजारे थे, मुझे छुई-मुई
झिलमिले से लगते हैं–जैसे जाने से पहले जो सुई रिकॉर्ड पर ठिठक गई थी, अब दोबारा उसी जगह से चालू हो गई है। वही संगीत अंश है, वही रिकॉर्ड–मैं जहाँ उसे छोड़ गया था, वहाँ मेरी उम्र रुक गई थी। विदेश में गुजरा समय जैसे प्लेटफॉर्म पर गुजारी रात हो, उस बाकी रिकॉर्ड के हिस्से को सुनने की प्रतीक्षा में–जहाँ धूल है, गर्मियों की रातें हैं।
आपको कैसा लगता है, इतने वर्षो बाद ? जब कोई यह प्रश्न पूछता है, तो मुझे सहसा संगम की वह तितीरी दोपहर याद हो आती है। मैं सब कुछ भूल जाता हूँ–सिर्फ़ याद आते हैं, हाथ-भर लंबे साधु, उन पर पंखा झलते हुए पगले-पगले से चेले और सामने एक फटी-पुरानी दरी पर धूल में सने बासी बताशे और नए पैसे।
‘‘बाबू, देखते क्या हो ? साक्षात् शिव के अवतार हैं। रात-भर नहीं सोते।’’
शिव के अवतार टुकुर-टुकुर मेरी ओर देखते हैं। मैं उनकी ओर। पीछे गंगा का सूखा पाट था। कुटियों की लंबी कतार, यहूदियों के ‘घैटो’ की तरह अपने में सिमटी हुई, जिन पर रंग-बिरंगी झंड़ियाँ फहराती हैं। सूखी गंगा और शिव के अवतार के बीच धूल उड़ती है–खास हिन्दुस्तानी पर्दा डालती धूल और साँय-साँय करती हवा। वे रात-भर सोते, यह ध्यान आते ही मुझे अपनी रातें याद आती हैं–घर की छत पर, दूसरों की छतों की फुसफुसाहट से सटी हुई, पसीने से तर- बतर।
जब मैं जाने लगा, ‘शिवजी’ के चेले ने शिकायत-भरी नजरों से मेरी ओर देखा। चुनौती-सी देते हुए बोला, ‘‘आप नहीं समझेंगे, बाबू। विलायत के लोग इनकी महिमा गाते हैं।’’ विलायत का नाम सुनकर सहसा मेरे पाँव ठिठक गए। मुझे लगा, शायद वह मुझे कोई सर्टिफिकेट दिखाएगा। यह आश्चर्य की बात न होती। जब हमारे हिन्दी साहित्यकार अमरीकी विश्वविद्यालयों में गांधीजी की महिमा गाते नहीं थकते, तो कोई साधु अपनी महिमा के सबूत में विदेशी प्रशस्तिपत्र दिखाए, तो स्वाभाविक ही होगा।
मैंने एक बार उस ठूँठ-देह को देखा, जो शिव के अवतार थे। एक बार इच्छा हुई की उन्हीं के पास बैठ जाऊँ। धीरे से कहूँ कि जैसे वह हैं, धूल में सने हुए, गंगा के किनारे आँखें मूँदे हुए, उसी में उनका गौरव है, ‘प्रशस्तियों’ की उन्हें कोई जरूरत नहीं, चाहे वे भारतीय बाबुओं की हों या, ‘भारत-भक्त’ अमरीकी महिलाओं की। किन्तु मुझमें इतना साहस नहीं कि कुछ कह सकूँ, कम-से-कम उस व्यक्ति के सामने नहीं, जो ‘रात-भर सो नहीं पाते।’
दोनों नदियों से जुड़े हुए पानी पर मेरी देह आधी-आधी बँट गई है–आधी थकान यमुना और आधी गंगा अपने साथ बहा ले जाती है। पानी काफी गँदला है। कुछ दयनीय किस्म के फूल उस पर तिरते हैं। अपने देश में पानी में विदेशी दिनों की थकान धीरे-धीरे झरती है। हजारों वर्ष पहले शायद आर्यों ने इसी पानी में अपनी धूल और थकान को धोया होगा। और तब मुझे वे शब्द याद आते हैं, जो आइसलैंड में लैक्सनेस ने कहे थे, ‘‘हिन्दुस्तानी अद्भुत लोग हैं। गंगा के पानी में कीटाणु पल सकते हैं, उन्हें विश्वास नहीं होता।’’
सच पूछो, तो विश्वास मुझे भी नहीं होता। जो चीज अदृश्य है, उसमें विश्वास कैसा ? हम ‘दैहिक’ लोग हैं। दुनिया में शायद ही कोई जाति हो, जिसका देह के प्रति इतना मांसल, इतना सजीव लगाव हो। नंगी आँखों से देखने का सुख, नंगे हाथों से खाने का संतोष, नंगे निरोधहीन अंगों से प्यार करने की तृप्ति, थिएटर-सिनेमा में सोने का आनन्द–क्या कभी कोई हमें इन सुखों से वंचित कर सकता है ? देह के प्रति इतनी गहरी, इतनी अटूट आत्मीयता के कारण ही हमारे पुरखों ने दूसरे जन्मों की कल्पना की होगी। मृत्यु के बाद देह बिल्कुल नष्ट हो जाती है, आदमी हमेशा के लिए खत्म हो जाता है, यह विचार उन्हें भयंकर, नितान्त असहनीय होगा।
इस देश में देह का यह खुलापन हर जगह है। एक बन्द, शरमाते समाज में यह कुंठाहीन प्रदर्शन दूलरों का विरोधाभास जान पड़े, हम उसके आदी हो चुके हैं। हम एक मकान से दूसरे मकान में झाँक सकते हैं। कोई ऐसा कोमल, गोपनीय रहस्य नहीं, जो पड़ोसी की लुब्ध, पपड़ाई आँखों से छिपा रहा हो।
यहाँ सब कुछ देखा जा सकता है, सुबह के नहाने से लेकर रात के सोने तक। यद्यपि अपनी ‘मर्यादा’ में हर परिवार अपने-अपने में बन्द है, उसका दैनिक कार्यकलाप खुले पन्ने-सा खुला है। जब भाई-बहन के कमरे में या पति-पत्नी के कमरे में जाती है, तो दरवाजा खटखटाने की जरूरत नहीं, हिन्दी में ‘प्राइवेट’ के लिए कोई शब्द नहीं, क्योंकि भारतीय परिवारों में कभी उसकी आवश्यकता नहीं जान पड़ी। यह चीज लियोनोल्ड वुल्फ ने सबसे पहले नोट की थी, जब वे लन्दन के एक अपार्टमेंट में जवाहरलाल नेहरू से मिलने आए थे।
उन्हें यह चीज काफी अजीब लगी थी कि नेहरूजी दरवाजा खोलकर बैठे हैं। लोग आते हैं, बात करते हैं और चले जाते हैं–यूरोप से बिल्कुल विपरीत, जहाँ समाज की मर्यादाएँ चाहे कितनी खुली और मुक्त क्यों न हों, अपने घर में हर व्यक्ति अपने सगे-संबंधियों से भी अपनी देह-आत्मा छिपाकर चलता है।
मुझे यूरोपीय परिवारों का यह ‘पारस्परिक छिपाव’ हमेशा कुछ-कुछ हास्यास्पद लगता रहा है। हालाँकि यह छिपाव एक गहरी आत्मीयता से जुड़ा है, जो नंगी और खुली न होकर भी एक मकान को घर बनाती है, हर घर के आस-पास स्मृतियों को इकट्ठा करती है। इन्हीं अंधेरी स्मृतियों के आधार पर यूरोप में उपन्यास का जन्म हुआ था।
हमारे देश के गद्य में यदि उपन्यास की कोई आभा नहीं (महज चार सौ पन्नों का गद्य ‘उपन्यास’ नहीं बनता) तो शायद इसका एक कारण यह है कि हमारी जलवायु में ‘प्राइवेसी’ का कोई महत्त्व नहीं, अँधेरे व्यक्तिगत कोनों का कोई रहस्य नहीं। कोई ऐसे स्मृतियों के घरे नहीं, जो पुश्त-दर-पुश्त घरों में घोंसला बनाते हैं।, जिनमें ‘जीने-मरने’ को समेटा जा सके। शताब्दियों की तितीरी धूप में ढहते खँडहरों के बीच महाभारत की रचना हो सकती है, ऐना कैरेनिना या बुडनब्रुक्स की नहीं।
मुझे वर्षों पुरानी एक दोपहर याद आती है। नार्वे में एक मध्यकालीन शहर है–वर्गेन। मुझे हल्का-सा आश्चर्य हुआ, जब हमारे गाइड ने बताया कि शहर का सबसे बड़ा आकर्षण वे मकान हैं, जहाँ सौ-दो-सौ साल पहले शहर के धनी व्यापारी रहते थे। उन घरों को संग्रहालय की अमूल्य चीजों की तरह संरक्षित रखा गया है। पुराना फर्नीचर, परिवार की तस्वीरें, पियानो–सब चीजें हू-ब-हू वैसी ही हैं, जैसी कभी थीं। सिर्फ़ घर के प्राणी नहीं हैं। उनके लंबे कमरों में मुझे बार-बार लगता रहा, मानो इब्सन के अभिशप्त पात्रों की नियति भी इन अँधेरे कमरों की भूल-भुलैया में भटकती होगी।
मुझे यह भी विचित्र-सा भ्रम होता रहा (जिसे शायद साहित्य के गंभीर आलोचक हँसी में टाल दें,) कि बाहर की बर्फ, अकेले कमरों की निस्तब्धता और बचपन से मृत्यु तक एक ‘स्पेस’ में बँधा बोध–ऐसी तस्वीरें हैं, जिन्हें साहित्य एक ‘मैजिक लैंटर्न’ की तरह दीवार पर खींचता है। उसे खो देने का मतलब है, अपनी स्मृति से वंचित हो जाना और एक ऐसे ‘मरुस्थल’ में खो जाना, जिसमें वर्जीनिया वुल्फ के स्वप्न ‘ए रूम ऑफ वंज़ ओन’ के लिए कोई गुंजाइश नहीं।
लम्बे अरसे के बाद अपने शहरों में घूमते हुए मुझे बराबर इस ‘मरुस्थल’ का अहसास होता रहा है। क्या कोई शब्द हैं, जो इस पीली, दम-घोंटती दरिद्रता को पकड़ सकते हैं, जो हर नगर पर धूल की मोटी परत-सी छाई रहती है ? लगता है, जैसे हर हिन्दुस्तानी शहर एक मन्द, निन्यानवे डिग्री के बुखार में तप रहा है। तपते, धूप में उबलते शहरों पर बुखार की नींद में दुःस्वप्नों-सी चीलें मँडराती हैं। छतों के ऊपर हर शहर अपनी सुर्ख, ज्वरग्रस्त आँखों से उन्हें ताकता है, और वे बराबर सुन्न, अवसन्न आकाश में चक्कर काटती हैं–न जाने किसकी प्रतीक्षा करती हुई ?
उनके नीचे चीखती, चिंघाड़ती, रिरियाती खास ‘शहरी’ आवाजें, जो दिल्ली, लखनऊ, इलाहाबाद हर जगह एक जैसी ही जान पड़ती हैं–एक अन्तहीन ऊब और विषाद के सूखे खुरंग के नीचे अपने अदृश्य फोड़ों को खुजलाती हुई। मैं बरसों पहले इनसे डरता आया था। अब लौटने पर देखता हूँ, मैं चाहे ऊपर से कितना बदल गया हूँ, वह डर साँप की तरह इन आवोजों पर कुंडली मारकर ज्यों-का-त्यों तैनात है।
क्या तुम इन आवाजों को पकड़ सकते हो, बाँध सकते हो–उसी तरह जैसे कभी जॉयस ने डबलिन की बाजारू, अनर्गल, बहकती आवाजों को एक हाँफते, हड़बड़ाते ‘मोनोलॉग’ में पिरोया था। यहाँ यह संभव नहीं, क्योंकि हमारे शहर महज पक्के मकानों और बँगलों के ‘समूह मात्र’ हैं–स्मृतियों की अटूट धारा उनके बीच कब की सूख चुकी है। वे गाँवों की सीमा पर आधुनिक तड़क-भड़क के इश्तहार-से दिखाई देते हैं। सस्ते और कुरुचिपूर्ण।
उन्होंने पश्चिम की देखा-देखी समृद्धि के सब साधन जरूर ओढ़ लिए हैं–शायद ही किसी देश का कोई वर्ग अपनी ‘समृद्धि’ में इतना ओछा हो, जितना भारत का उच्च वर्ग। किन्तु भीतर की दरिद्रता रह-रहकर ऊपरी लीपा-पोती के बाहर बह जाती है। ला कार्बूजिए को बुलाकर चंडीगढ़ बनाया जा सकता है, विदेशी टेप-रिकॉर्डर और फ्रिज में आत्मा को सुना जा सकता है, ठंडा किया जा सकता है, किन्तु उस गरिमा और गौरव को ‘इम्पोर्ट’ नहीं किया जा सकता जिससे ‘मकान’ घर बनते हैं,
घरों के सम्मिलित संस्कार नगर, जिसके आस-पास स्मृतियाँ जुड़ती हैं, अतीत से जुड़ी होने के बावजूद वर्तमान की धमनियों में स्पन्दित होती हुई–जिसके अभाव में हर चंडीगढ़ आधुनिक खँडहर है, हर पुराना खँडहर मिट्टी का महिमाहीन ढूह।
गरीबी और दरिद्रता में गहरा अन्तर है। भारत लौटने पर जो चीज सबसे तीखे ढंग से आँखों में चुभती है, वह गरीबी नहीं (गरीबी पश्चिम में भी है), बल्कि सुसंकृत वर्ग की दरिद्रता। एक अजीब छिछोरापन, जिसका गरीबी के आत्मसम्मान से दूर का भी रिश्ता नहीं।
शायद यह एक कारण है कि भारतीय सिनेमाघरों में फिल्म शुरू होने से पहले ही विज्ञापनों की जो ‘कॉमर्शियल’ फिल्में दिखाई जाती हैं, उन्हें देखकर अँधेरे हॉल में भी शर्म से मेरा मुँह लाल हो जाता है। स्वस्थ, चिकने-चुपड़े बच्चों को मुस्कुराती हुई माँएँ जिस अदा से कॉर्नफ्लेक्स देती हैं, वह न जाने क्यों मुझे असह्य जान पड़ता है। मुझे तीनों ही ‘चीजें’ अश्लील जान पड़ती है–बच्चे, माँएँ, कॉर्नफ्लेक्स। यूरोप में मुझे अनेक ‘ब्लू फिल्में’ देखने का मौका मिला है, किन्तु शायद ही अश्लीलता का इतना नंगा बोध पहले कभी हुआ हो। न जाने क्यों इन फिल्मों को देखने के बाद मैं तगड़े, ‘तेजवान’ बच्चों को बर्दाश्त नहीं कर सकता। उनकी माँओं को तो बिल्कुल नहीं।
शुरू-शुरू में एकदम लौटने के बाद मुझे अपनी यह खीज अस्वाभाविक, कुछ-कुछ ‘एब्नॉर्मल’ जान पड़ी थी। अब मैं धुँधले ढंग से इसका कारण समझने लगा हूँ। सड़क और सिनेमाघर की दुनियाओं के बीच जो अन्तराल हमारे देश में है, वह अन्यत्र कहीं नहीं। स्कूल से लौटते हुए भूखे-प्यासे बच्चे घंटों बसों की प्रतीक्षा में खड़े रहते हैं।
चिलचिलाती धूप में उनके सूखे बदहवास चेहरे एक तरफ, सिनेमा की फिल्मों में कॉर्नफ्लेक्स खाते चिकने चमचमाते चेहरे दूसरी तरफ। इन दोनों के बीच तालमेल बिठाना मुझे असंभव लगता रहा है। कोई चीज अपने में ‘अश्लील’ नहीं होती, एक खाश परिवेश में अवश्य अशलील हो जाती है। चेकोस्लोवाकिया के बाद किसी रूसी नेता के मुँह से क्रान्ति की बात उतनी ही अश्लील जान पड़ती है, जितना एक ऐसे भारतीय मन्त्री के मुँह से सामाजवाद की प्रशंसा, जो इनकम-टैक्स देना भूल गए हों।
यह अन्तराल हर देश में है, किन्तु हमारे यहाँ वह एक सुर्रियलिस्ट स्वप्न की अद्भुत फैंटेली-सा दिखाई देता है। शायद यही कारण है, जब से मैं लौटा हूँ, सुबह का अखबार छूते हुए घबराता हूँ। जो कुछ ‘ऊपर’ हो रहा है, उसका आस-पास की दैनिक दुनिया से कोई संबंध नहीं। यह एक विचित्र मायावी दुनिया है;
दफ्तर के कमरों के आगे बैठे ध्यानावस्थित धूनी रमाए चपरासी, काम छोड़कर दोपहर का ‘शो’ देखनेवाले क्लर्क, नीरो को मात देते हुए व्यंग्य-हास्य कविताएँ लिखनेवाले साहित्यकार, आस-पास के बाजारूपन से निरासक्त, किन्तु साहित्य में बढ़ती हुई अश्लीलता से उत्तेजित होनेवाले बुद्धिजीवी–ये सब स्वस्थ, शिक्षित आधुनिक लोग हैं। हमें इन पर गर्व है–होना भी चाहिए। कौन आधुनिक माँ कॉर्नफ्लेक्स खाते हुए अपने सजीले बच्चे पर गर्व न करेगी ?
हम सबके अपने-अपने चंडीगढ़ हैं। दीवारों के भीतर ला कार्बूजिए, बाहर दीवारों पर पान की पीक के मौजेक। आधुनिकता और भारतीयता का यह अद्भुत समन्वय और कहाँ मिलेगा ?
हमारे भीतरी-बाहरी जीवन का शायद ही कोई हिस्सा हो, जिस पर इसकी छाया नहीं पड़ती।
लेकिन यहाँ मैं शायद गलत हूँ। हमारे कुछ हिस्से हमेशा अछूते, कुँवारी घास-से कुँवारे बचे रहते हैं। चाहे हम आधी जिन्दगी विदेश में गुजार दें, वापस आने पर उनकी रोशनियाँ पहले की तरह हवा में सिगनल देती हुई तुम्हें अपने पास बुलाती हैं। किसी भी शाम अकेली छत पर बियर पीते हुए, या बिना बियर के भी तुन इन्हें देख सकते हो। रात होते ही हर हिन्दुस्तानी शहर का बुखार उतरने लगता है। धूल का अम्बार अपने पीले पंख समेटकर आकाश से उतर आता है और तुम छत के ऊपर–शहर की छतों के ऊपर–साफ चमकीले तारों की दूर-दूर फैली झालर देख सकते हो,
जिन्हें तुमने पेरिस या प्राग या लन्दन के आकाश में कभी नहीं देखा। दिन की तीखी आवाजों से कोने झर जाते हैं। हर शाम तुम नीचे गली के नुक्कड़ पर, लैम्प-पोस्ट के दायरों में लड़कियों की हँसी सुन सकते हो, जिन्हें सुनकर कुछ और शामें याद हो आती हैं, कुछ दूसरे शहरों के होटलों के कमरे, कुछ और चेहरे।
यह अजीब है कि हर गर्म देश की लड़कियाँ, चाहे वे इटली, स्पेन या अपने देश की हों, शाम के झुटपुटे में एक तरह से ही खुलकर, खिलखिलाते हुए हँसती हैं। हमारे यहाँ यूरोप के शहरों के समय में घिरे, हास्यमय मकाम न भी हों, गलियों और चौराहों की एक स्वतंत्र, स्वयंचालित धारा है, जो हर रात लोगों को बाहर खींच ले आती है।
बहुत देर गए जब गलियाँ सूनी हो जाती हैं, जब हिन्दुस्तानी शहर रोशनियों के बीच एक पुरानी समृति–सा अपनी बोझिल साँसों के सिरहाने ही ऊँघने लगता है। कीर्तन के गमगीन, गुनगुने स्वर एक छत से दूसरी छत पर तिरते जाते हैं। जुलाई की रातों में अचानक बारिश आने पर चारपाइयाँ उतारने की समवेत आवाजें, टूँटी से बहते पानी की टप-टप और तब सहसा ध्यान आता है कि ‘रोज’ की तरह कोई गृहिणी ग्यारह का गजर सुन रही होगी।
गलियों में धूल से सने बच्चे को सोते देखकर सहसा विज्ञापन के चिकने, आत्मतुष्ट चेहरे नहीं, महादेवी के उद्भ्रान्त ‘चलचित्र’ आँखों के सामने घूम जाते हैं। किसी सूने चबूतरे को देखकर याद आता है कि बरसों पहले यहाँ फटी-पुरानी दरी बिछाकर गुल की बन्नो बैठी होंगी।
हमें अपने उपन्यास चाहे कितने प्राणहीन क्यों न लगते हों, हमारी हिन्दी कहानियाँ इन्हीं सीलन-भरी, एक-दूसरी से सटी छतों, गलियों के चौराहा, भुतहा दरवाजों के पीछे छिपी प्रतीक्षारत आखों, अँधेरे में अज्ञात खिलखिलाती हँसी से बाहर आई हैं। वे हमेशा अमर हैं, हमारे साथ हैं।
लेकिन कुछ है, जो हमेशा के लिए बह जाता है। अपनी छत के नीचे लैम्प-पोस्ट इर्द-गिर्द लड़कियों को देखकर मैं सोचता हूँ–वे लड़कियाँ कहाँ हैं, जिन्हें मैंने पाँच साल पहले देखा था। सचमुच, वे कहा हैं ?
-निर्मल वर्मा
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